यूक्रेन से सामने आया वीडियोः हम बंकर में फंसे हैं, प्लीज…मदद भेजो, राहुल गांधी ने शेयर किया वीडियो
यूक्रेन पर हमले के बाद अमरीका और रूस के बीच बढ़ते हुए तनाव के बीच दोनों देशों के साथ राजनयिक संबंधों में संतुलन बनना भारत के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। अमेरिका और रूस दोनों भारत के रणनीतिक साझेदार हैं। यही वजह है कि 31 जनवरी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन तनाव पर चर्चा के लिए होने वाली वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था लेकिन जब चर्चा हुई तब वहां मौजूद भारत के प्रतिनिधि ने इस तनाव को कम करने और क्षेत्र में स्थायी शांति और स्थिरता की अपील की थी। भारत के साथ कीनिया और गैबॉन वोटिंग से बाहर रहे थे। रूस और चीन ने चर्चा के खिलाफ वोट किया था यह वोटिंग प्रक्रियात्मक थी और इसमें वीटो का प्रावधान नहीं था। इसमें 9 वोटों की जरूरत थी। अमेरिका इस बात को लेकर आश्वस्त था कि चर्चा के लिए उसे 9 से ज्यादा देशों का समर्थन मिल जाएगा। इस सब के बीच भारत एक मध्यमार्ग अपनाना चाहता है जिससे उसके दोनों देशों के संबंध यथावत रहें।
रूस और अमेरिका में टकराव नहीं चाहता है भारत
यूक्रेन पर रूस और अमेरिका के बीच तनाव बढ़ने से भारत को लिए पसोपेश की स्थिति है। भारत ऐसी स्थिति नहीं चाहेगा, जिसमें उसके दोनों सहयोगी आपस में टकरा जाएं। चूंकि अगर ऐसा हुआ तो भारत को किसी एक पाले में आना होगा और यह उसकी रणनीतिक स्वायत्तता को बड़ा झटका दे सकता है। बदलते भू-राजनीतिक समीकरण में भारत के लिए यह मुश्किल घड़ी होगी। एक मीडिया रिपोर्ट में भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल हर्ष कक्कड़ ने लिखा कि भारत के लिए निष्पक्ष रहना सबसे बढ़िया विकल्प है। इसमें कोई शक नहीं है कि भारत की निष्पक्षता ने अमरीका को रास नहीं आई है। अगर भारत ऑकस का सदस्य होता तो उसे अमेरिका का समर्थन करना ही पड़ता है। ऑकस तीन देशों के बीच एक समझौता है जिसमें ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका शामिल हैं। यूक्रेन के मामले में रूस का अमेरिका से तनाव और बढ़ा है और उस पर प्रतिबंध लगाए गए तो चीन से उसकी नजदीकी और बढ़ जाएगी। इससे रूस और चीन में सैन्य सहयोग भी तेजी से बढ़ेगा।
अमरीका का साथ से रूस से बिगड़ेंगे संबंध
अगर भारत ने यूक्रेन मामले में अमरीका को छिपे तौर पर समर्थन देने की कोशिश की तो इसका रूस के साथ उसके संबंधों पर गहरा असर होगा। भारत और चीन के बीच सीमा विवाद के मामले में रूस ने अभी तक किसी का पक्ष नहीं लिया है। भारत को उम्मीद है कि आगे भी रूस इस मामले में निष्पक्ष बना रहेगा।अंतरराष्ट्रीय मामलों के विश्लेषक रणजय सेन ने एक अन्य मीडिया रिपोर्ट में कहा कि अमेरिका अब तक भारत का सबसे अहम रणनीतिक साझीदार बना हुआ था। भारत को अगर चीन का सामना करना है तो उसके लिए अमेरिका के साथ साझीदारी जरूरी है। अमेरिका के साथ संबंध मजबूत रहे तभी भारत चीन की चुनौती का सामना करने की स्थिति में होगा, लेकिन रूस के भीतर भारत-अमेरिका गठजोड़ को लेकर आशंका बनी हुई है और कम नहीं हो रही है।
अफगानिस्तान में चीन ने दिखाई तेजी
भारत अफगानिस्तान जैसी स्थिति से बचना चाहेगा, जहां से अमेरिका निकल आया है और तालिबान को मान्यता देने में चीन ने बेहद तेजी दिखाई है। इससे अफगानिस्तान में निवेश के मामले में चीन ने भारत से ज्यादा बढ़त ले ली है। भारत की योजनाएं खटाई में पड़ गईं हैं। भारत अफगानिस्तान, पाकिस्तान, इराक, ईरान,लीबिया और यहां तक की चीन में अमरीकी नीतियों की कीमत अदा कर चुका है। भारत की चिंता एक और मामले को लेकर बढ़ेगी क्योंकि यूक्रेन तनाव की वजह से अमेरिका का ध्यान एशिया-प्रशांत क्षेत्र से हट कर पूर्वी यूरोप पर बना रहेगा। नवंबर 2020 में यूक्रेन क्राइमिया में कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन के मामले में संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव लाया था। उस वक्त भी भारत ने इस प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग की थी। इससे पहले 2014 में मनमोहन सिंह सरकार ने क्राइमिया को मिला लेने के बाद रूस पर लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंधों का विरोध किया था।
रूस-अमरीकी संघर्ष में भारत को लेना पड़ेगा एक पक्ष
तिरुमूर्ति ने सुरक्षा परिषद में भारत के रुख को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारत चाहता है कि यूक्रेन-रूस सीमा पर तनाव तुरंत कम हो और सभी देशों के जायज सुरक्षा हित बरकरार रहें। फिलहाल ऐसा लगता है कि भारत रूस-यूक्रेन मामले में ‘इंतजार करो और देखो’ की नीति अपनाएगा. लेकिन अगर रूस ने आक्रामक रवैया अख्तियार किया और अमेरिका के साथ इसका तनाव बड़े संघर्ष में तब्दील हुआ तो भारत को कोई ठोस रुख अपनाना ही पड़ेगा। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी स्थिति में भी भारत-रूस या भारत-अमेरिका के संबंधों में कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखेगा।
Source News: punjabkesari